धरा का दुख न देखा किसी ने
न जाना
धरा का प्रेम न छुआ किसी ने
न माना
अंतस गहराई से बिंधी गई
बार बार छिली गई दुहराई गई
फिर भी मुस्कुराते हुए
नव कोंपल का उपहार जग को सौंप
दिया
इक बूंद ओस की आस में
तड़कते मन को सम्हाले हुए
अमृत के मीठे जल को
नदी रूप में सागर को सौंप दिया
धरा फिर भी धारणी है
असीम दुख मन में धरण किये
असीम प्रेम जग को सौंप दिया
अश्रु समुंदर नैन सजाये
मीठा अमृत मानव मन को सौंप
दिया