मन के कोने में हुई
सुबुगाहट
चलो आज पत्थरों से दिल
लगाएँ
आस-पास चलते दिल तो
देखे
आज किसी कंकड़ से मिल
बतियाएँ
सड़क किनारे पड़ा एक अकेला
किसी बड़े टुकड़े का
हिस्सा कभी था
बिछड़ कर उससे आज यूँ
ही पड़ा है
सीने से अपने उसे आज
लगाएँ
चाहा होगा उसने भी कभी एक पल में
बनूँ हिस्सा किसी
मंदिर की चौखट का
महल की दीवार में लग
जाऊँ या मैं
मस्जिद के नहीं तो मैं
काम आऊँ
टूट कर लेकिन बिखर गया वो
अपनों से हाथ उसका छूट
गया तो
मौसम के थपेड़ों ने भी
न बक्शा उसे
गले अपने लगा के उसे
फिर जिलाएँ
मिलेगा धूल में अब या यूं ही रहेगा
किसी की चोट का जरिया
या बनेगा
“लेखनी” की रोशनी में
उसे फिर सजाएँ
चलो आज किसी पत्थर से
दिल लगाएँ
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