Tuesday, April 23, 2013

पंछी


परों की परवाज को तोलता
नीले आकाश को पंखों से नापता
नया जीवन जीने की चाह में, पंछी,
सुनहले कल की कामना
अधीर मन में समाये
बंद पिंजरे को मुंडेर समझ बैठा

बेबस पंछी ,
सोने की जंजीर में कैद होकर
पुराने रिश्ते नाते खो कर
अपना अस्तित्व नए आज में मिलाकर
सिर झुका कर
दिन औ रात नए सपने बुनने लगा

हर पल, एक नया बंधन
अतीत की हर डोर को
काटता रहा,
हर क्षण,
एक नई डोर,कदमों को बांधने लगी।

फिर से उड़ने को आतुर पंछी
हर दिशा में एक नया
दरवाजा औ नई खिड़की
ढूंढने लगा

घायल पंख ,
बेबस तन के साथ पंछी
रोज नई उम्मीद के साथ
पिंजरे में सेंध ढूँढता रहा

मन की लगन,
तन की उमंग ने
पंछी के पंखो में नई जान दी है,

घायल पंखो के साथ
नए जोश के साथ
आज फिर पंछी ने एक
नए कल को आवाज दी है।




                     

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